ईश के दो  अनुपम वरदान ,
एक कृषक अरु एक जवान |

(भाग-१)

निज लहू से धरती सींच कर,
दिन-रात एक कर,महाश्रम कर |
दिनकर के ताप के समक्ष भी ,
गुनगुनाते जीवन के गीत में,
शशि का ठंडक , शीत में ,
वे अडिग हैं, अपने अक्ष पर ||
रसाल का गुठली हुआ निरस,
तन जर्जर , पर ना परवाह ।
जीवन में नित रहना अविरल ,
इन्हें कब है सुख , व इसकी चाह ॥
अहा ! भाग्यरेखा ,
यूं अन्त समय है आया ।
खत्म हुआ निज वक्त ,
कंकाल हुआ वृद्ध काया।।
खुद प्रस्थान किये , पर ,
मानवता का संचार,
निज स्वरुप उतार ,
उत्तराधिकार को दिया निज छाया ।।

(भाग-२)

सीने को चीरती अस्त्र हैं ,
पांव पीछे ना हटता सशक्त हैं ।
अदम्य है साहस , वो हृदय में ,
जो कोमल पुष्प सदृश्य है ।
मानवता की सुन पुकार ,
कर उर पत्थर , रूके न क्षण भर ।
जो अनमोल मोती हैं ,
हंसता , किलकिलाता है ।
रक्षक बन चला वो ,
मनमोहक अति भाता है ।।
वीर शैय्या पर सो गये ,
सदा के लिए हंसते-हंसते ।
देख कर यह करूण दृश्य , जाते-जाते ।।
कवि का अन्तर्मन डूब जाता है ,
रसधारा में ,
वीर नहीं मरा , वो अमर है ,
इसी पुड्य धरा में ।